श्री हनुमान प्रसाद जांगिड व्याख्याता रा.उ.मा.वि.कुचील
तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ किनारे का किनारा हूँ सहारे का सहारा हूँ ना बदलूँगा कभी भी मैं तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ बदलती शान से दुनिया बदलती ईमान से दुनिया बदलना क्यों भला मेरा जो तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ चलती स्वास है प्यारे साथ धड़कन भी है प्यारे जीवन है जहाँ तक भी तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ चाँद के साथ तारे है सूरज दिन को सँवारे है नदी के सँग किनारे सा तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ पता तेरा मेरा घर है लिखा नाम मेरे सँग है श्रीमान मैं श्रीमती तुम तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ गलतियाँ जो तेरी हो शिकायत उसकी मेरी है मनाया जाएगा हर बार तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ राशन खर्च तुम माँगो स्वाद भोजन का मैं चाहूँ है झगड़े का अधिकार तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ यौवन सँग स्नेह और प्यार बुढ़ापे आये तो सत्कार डूबती नाव सँग पतवार तुम्हारा हूँ तुम्हारा हूँ हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ अमरपुरा,अजमेर 17 जुलाई 2020 | लोगों ने हर मुश्किल से बचने का हर तरीका है देख लिया। चन्द ने तैरना सीख लिया तो बाकी ने किनारा देख लिया।। हम कतराए नहीं चन्द लोगो के साथ तैरने से कभी भी। मगर पाने को छौर किसी ने किसी का सहारा देख लिया।। हमारी तैराकी से खुश न थे कोई वो जो थे सहारे अपने। चलो वक़्त के रहते अपनो के छलावों को देख लिया।। मेरी जिद थी के मैं रुकूँगा नहीं कभी किनारे से पहले । गिरा तो जमीन और उठा तो बुलन्द आसमाँ देख लिया।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ 17 जुलाई 2020 |
जब यह भारत का वीर आगे बढ़ जाता है जब यह भारत का वीर आगे बढ़ जाता है देख मौत भी आगे फिर लौट कभी न आता है जब यह भारत का वीर आगे बढ़ जाता हैं। तब कारगिल शिखर भी पाँव तले आ जाता है।। पुलवामा तो छल था,छल था उरी हमला भी। जब बढ़े हम आगे तो बालाकोट भी थर्राता है।। जब कभी कोई हाथी मतवाला हो जाता है मेरा वीर भी आगे बढ़ खूब तबाही मचाता है डोकलाम पर न माने,आगे किया नेपाल को 20 बलिदानों पर यह अनगिनत मार जाता है कश्मीर तो अब पूरा होगा,अब लद्दाख भी होगा ये अलबेला सोच सोच यही आगे बढ़ जाता है एक एक वीर हमारा सौ सौ पर भी भारी होता है चीन पाक सोचो,क्यो पाक बंगदेश हो जाता है।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ 17 जून 2020 | तेरा बलिदान व्यर्थ न जाएगा मातृभूमि बलिवेदी पर जो हँसते हँसते बलिदान हो जाएगा। इस माटी में होगी सुगन्ध तेरी,तेरा बलिदान व्यर्थ न जाएगा।। अनीति मार्ग जो धारित कर अब कोई कितना आगे बढ़ पायेगा। लिपट तिरंगे से धर्म विजय पाने का तेरा बलिदान व्यर्थ न जाएगा।। शांत अपने चितवन से ये वीर शस्त्र अस्त्र न पहले कभी उठाएगा । मातृभूमि वीर पथ बलिदान हुआ तू तेरा बलिदान व्यर्थ न जाएगा।। हर भारतवासी कहता हैं कब मातृभूमि पर मिटने का अवसर आएगा। माँ भारती पर बलि हुए उन वीरों संग तेरा बलिदान व्यर्थ न जाएगा।। हरि ॐ |
मेरे प्यारे सैनिक मेरे प्यारे सैनिक बलिदान आज हुए है। भारत मातृ भूमि के वो सरताज हुए हैं।। छोड़ गए वो स्वास, है कर्तव्य निभाया भारती के वो आँखों के तारे आज हुए है।। शत्रु के हाथों हम पर कितने वार हुए है । गलवान घाटी के पत्थर पावन आज हुए है।। आहिंसा परम् धर्म हमारा,हर सम्मान दिया घात सह बलिदानी वो सबके नाज हुए है।। करगिल हो पुलवामा हो या हो डोकलाम मातृभूमि रक्षा को बलिदानों के काज हुए है।। सत्य और निष्ठा को धारित तत्पर सदा रहे है मानव थे वो पहले किन्तु देवतुल्य आज हुए है।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ 17 जून 2020 |
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शिक्षक हूँ मैं इस कल्पतरु कलम रूपी तलवार में बहुत धार हैं। किन्तु राजधर्म उपेक्षाओं के आगे बहुत लाचार है।। दिया जाता है काज कोई भी,सहर्ष ही स्वीकार हैं। छूटता कुछ नहीं यहाँ,शिक्षक का यहीं व्यवहार हैं।। फलों से लदा वट ज्यों विनम्र होकर झुक जाता है। समाज,राष्ट्र हित नत मस्तक हो शीश झुकाता हैं।। युगों से जो निज जीवन न्योछावर करता आया है। दुर्योधन हो या अर्जुन, अंतर कभी न दिखाया है ।। लोकतंत्र का प्रहरी बन, जन, पशु तक गिनता है। क्यो रह जाए अशिक्षित कोई, घर घर फिरता है ।। कोरोना महामारी में धर्म,अर्थ और तन अर्पित है । अजान भले व्याधि से, किन्तु कर्तव्य मुखरित है ।। शिक्षक हूँ आदि काल से, वाल्मीकि,वेदव्यास हूँ । एकलव्य के लिये आधार हूँ द्रोण सा लाचार हूँ ।। मरण काल तक कर्तव्य, "कलाम"सा सम्मान है । "सर्वपल्ली"के स्वप्नों पर शिक्षक को अभिमान है।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ 26 अप्रैल 2020 | कोरोना को तेरे आगे हारना है अभी सोचना क्यों खुद से ज्यादा खुद से ज्यादा सोच तू पायेगा क्या मौत बट रही है घर के बाहर बाहर जाकर तू मरना चाहेगा क्या हर रोज देख ले भीतर अपने बाहर जहान से भला तू पायेगा क्या चलने दे खुल के साँसे अपनी कुछ और सोच मरना चाहेगा क्या भगवान देख लेंगे बाकी सब बाहर शेखी बगार मौत घर लाएगा क्या माना दम तेरा घुटता होगा ये खुद को देखने का मौका नहीं है क्या बाहर कुछ तेरे हितेषी होंगे सोच समझ लाठी उनकी खायेगा क्या बूँद बूँद से घड़ा भर जाता है तू बाहर जाकर जल छलका आएगा क्या कौन कहेगा फिर रूकने की सोच जिम्मेदारी से फिर रूक पायेगा क्या कोरोना को तेरे आगे हारना है "हरि ॐ"बीतने के बाद कोई समझाए क्या हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ अजमेर 26 अप्रैल 2020 |
तेरा हुक्म सर आंखों पर,हम तो अब भी रख लेंगे साहिब। मजदूर तो हैं हम और फिर मजबूर भी तो है साहिब ।। मेरे चूल्हे की लो बुझ रही,हिंदू मुसलमा तो बंद करो साहिब। किसी की जाति,ईमान अलग, मजहब का खेल क्यों साहिब। मरती मानव जाति पर भेद भाव, ठीक नहीं है साहिब। अंदर से कुरेदो तो भूख एक जैसी ही निकलेगी साहिब ।। वो बैठे ऊँचे शिखरों पर,बस मजबूरों को बहकाते साहिब। हमें काहे दण्ड उनका, मुश्किल पेट हम पालते साहिब।। घर जाना हैं मिलना है अपनो से फिर लौट आवेंगे साहिब। हमारी पीर अपनी समझो तब ही तो तुम समझोगे साहिब।। भारत गौरव की महिमा को आज पुनः बनावो साहिब। "हरि ॐ"का स्वप्न हर घर समृद्धि दीप जलाओ साहिब।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ अजमेर | मौत आने तो दो मौत आएगी हमे भला तो आने तो दो, ये भी दुनियाँ का दस्तूर है निभाने तो दो, वो गुजर तो जाएँ मेरे जनाजे को देखकर, बस एक यही यकीन ही मुझे आने तो दो।। आफताब रोज आता है चाँद रह न पाता है, चाँदनी के सितारे वो चमक में छुपाता है मेरे यकीन मखोल तो तू कोई और हुआ जनाज़े की ईद पर आज चाँद आने तो दो।। साँसे रूकेगी,धड़कने टूटेगी,बेजान होंगे तो हिलेंगे नहीं,हंसेगे नहीं,रोएँगे नहीं,सच जाने तो या तो वो गम चूर होंगे,या हमसे दूर होंगे "हरि ॐ"मौत मज़ा या सज़ा,मौत आने तो दो।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ अजमेर 9928875100 11 मार्च 2020 |
आ अब कहाँ फसे निज कृत्यों से आज मानव खुद ही फँसे । प्रसन्न हुआ यमलोक और यमराज हँसे ।। हो स्वारथ वशीभूत विपदा तू खुद ही लाया। अब पछतावे के शूल क्यों न हृदय तेरे धँसे।। विधाता ने तो तुझे खान पान सम्मान है दिया । तूने सब कुछ त्याग केवल विषपान है किया । क्या मनाने को देव अब तू अधिकारी रहा जो छेड़े विषधर देव तो अब वो क्यों न डसे।। करे प्रीति विपरीत तो हर कोई औंधा गिरे। आये विनाश काल तो सद्बुद्धि फिरे। लांघी तूने खाई खोद अब तूने कुआ दिया सूझे न उपाय "हरि ॐ"आ अब कहाँ फँसे।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ अजमेर 11 मार्च 2020 | काफिला गुजर गया कोई करके वादा न जाने कब मुकर गया। जाने कब हक़ीक़त का काफिला गुजर गया।। यकीन नहीं अब भी क्यों कोई इतर गया। देखते रहे हम और काफिला गुजर गया।। यादों में उनकी आंखों में अश्क़ ठहर गया । रुकना नसीब न था जो काफिला गुजर गया।। आज क्यों गुलाबों का वो सूर्ख रंग उतर गया । अजीब किस्सों सा वक़्त काफिला गुजर गया।। चलती सांसों से क्या कोई दुनियाँ में ठहर गया। चलती सांसो के इश्क़ का काफिला गुजर गया।। शहर ठहरा गाँव ठहरा,जो मरा नहीं ठहर गया। मुझे रोके कितना,पिछलों का काफिला गुजर गया।। मेरा तेरा क्या है यहाँ जो तू देखने को ठहर गया। "हरि ॐ"से पहले इश्क़ का काफिला गुजर गया।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ 16 मार्च 2020 |
मेरा प्यारा परिवार नीम कट गया, आँगन बंट गया, खड़ी हो गई एक दीवार। विस्तार लुट गया, विश्वास लुट गया, छोटा हो गया ये संसार। भाई गया, भाईचारा गया, रह गई तो केवल तकरार। बचपन गया, रिश्तों से स्नेह गया, कमा कमा करते जीवन पार। माँ का ममत्व गया, पिता का स्वामित्व गया, बदला अपनों का व्यवहार। खेत बिक गया, गाँव से गया, शहरों मैं मानव बना व्यापार। पड़ोस गया, सन्तोष गया, नहीं रह गया कुछ आरपार। केवल "मैं" रह गया "हम"न रह गया न रहा मेरा प्यारा परिवार। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ अजमेर | निज हित है सब किया किसने किसका अच्छा किया किसने किसका बुरा किया। दुनियादारी है यहाँ,जो किया अपने ही हित में है किया।। अंधकार था कुछ दिखा नहीं तो दीपक उसने जल दिया अंधकार अब छट आया तो दीपक उसने ही बुझा दिया।। एक माता ही निश्वार्थ थी जिसने हमको जनम दिया उसी गर्भ से जाया भाई आँगन हिस्सों में बटा दिया।। एक बीज से सेरों उगाता खेतों को स्वार्थ में माता बता दिया भरा पेठ,अब पैसा देख तूने उसका ही अब सौदा किया मृत्यु सत्य कौन भला जानता नहीं,किसने उसे धोखा दिया क्या ले जाता साथ है,किन्तु नाम खातिर ही सब है किया। निश्वार्थ पंछियो ने भी अपना कोई स्वार्थ तो है पूरा किया परमपिता परमेश्वर की लीलाओं को ही पूरित है किया।। गौ,वृक्ष,मातापिता,गुरुवर,सरिता,सविता,वायु और दिया मानव ही है जो कुछ करता नहीं,किया जो निज स्वार्थ किया।। हरि ॐ हनुमान प्रसाद जांगिड़ 9928875100 11 मार्च 2020 |
चिमचिम
मानव प्रकृति से कैसा होता है?यह प्रश्न मुझे यक्ष प्रश्न जैसा ही लगता हैं। भला कोई आदमी निर्धन होकर संस्कारों में कितना ही महान हो सकता है और वैसा ही अन्य अपनी निर्धनता को कोसते हुए संस्कारों से परे तिरिस्कृत और लक्ष्यहीन जीवन व्यतीत करने लगता हैं।यही नियम प्रकृति धनवानों पर भी लागू करती हैं किन्तु अंतर यह होता है कि धनवान अपनी इच्छाओं की तृप्ति पश्चात या जीवन से विमोहित हो उस आचरण को अपनाता हैं। ईश्वर की ओर से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवनी का एक ठोस आयाम मिल जाए,कम से कम वह जीवनी के अल्प स्वप्नों को पूर्ण कर सके तो उस समाज के लिये यह एक सुखद अनुभव ही होगा।
बात क्यों बढाई जाए?मैं उसी यक्ष प्रश्न का हल चाहता हूँ ।कैलाश के मुखमण्डल की आभा का कोई गम्भीर प्रभाव मुझ जैसे काव्य पाठ करने वाले चिंतक के चित्त पर प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकता है किंतु काव्य की रूचि रखने वाले कि भूमिका में किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व से प्रभावहीन रहना शोभा का विषय नहीं हो सकता ।मेरी आयु कुछ 10 वर्ष के समीप होगी उस समय से मेरी स्मृतियाँ कैलाश का स्मरण करती हैं।सत्य है किसी व्यक्ति का मुखमण्डल भले कांतिमान न हो किन्तु सुगठित तन हो तो वह उस काया को आकर्षण का आयाम बना देती है।मुख मंडल की गोल आकृति और कम खुलते नेत्र किसी चीन या उत्तर पूर्व के किसी भारतीय के समीचीन लगते थे और पलको के झपकने की क्रिया ने उसका अन्य नामकरण चिमचिम रख छोड़ा जिसे सुन कैलाश मानो स्वभाव से सी चिढ़ने लगा
। कैलाश के पिता का स्मरण मुझे नही माता से मानो चिर काल से परिचय रखता हूँ।आज वह कृशकाय है और हाथ धरा से चलने की अवस्था मे भी नहीं छूटते।आयु का संज्ञान तो नहीं पर अनुमान से 90 वर्ष की आयु तो पुष्ट होती ही है।
“बेटा कैलाश की मजूरी के पैसे इस बार उसको मत देना” “भला क्यों?क्यों न दू और देने को बचा ही क्या है कल ही तो दो हज़ार ले गया था अब तो चार पाँच सौ से ज्यादा न होंगे”मैं उत्तर देने लगा बुढ़िया बीच में बोल पड़ी “बेटा तेरे हाथ जोड़ती हूँ जो बचे है वो ही दे दे वो निकृष्ट तो शराब का ठेका नहीं छोड़ता जब तक सारा पैसा नहीं खपता!है भगवान क्यों मूर्ख को बुद्धि नहीं देता दो पेट है वो भी न पलेंगे ………..”। रूदन का आभास मुझे हो चला इस निर्मम संसार में हाथ पैर चलते कोई चला जाये इससे ज्यादा सुखद आभास नहीं हो सकता पर यह तो दीनदयाल कृपानिधान की इच्छा के परिणाम पर निर्भर करता हैं। सब के जीवन में सुख के अध्याय होते है ऐसा अध्याय कैलाश का भी था।जब भवन का काम चल रहा था और कैलाश एक हज़ार की राशि लेकर चल दिया तब मैं उस हजार की राशि के खपत काल की प्रतीक्षा में रह रहा था और उस समय उसके परम् मित्र ने जो किस्सा मुझे सुनाया बड़ा हँसाया!पत्थर की खान पर काम करते समय गाँव से कैलाश के विवाह सम्बन्ध के सुखद समाचार मिले और यह दिशानिर्देश उपलब्ध हुए की विवाह सम्बन्ध हेतु अतिथि अतिशीघ्र वहीं पहुँचेंगे । विवाह की आयु पीछे रह गई थी और यह सुखद संवाद कैलाश के पैरों पँख लगा गए। मदिरा सेवक दो परिस्तिथियों में मदिरा का सेवन करते है और भले व्यक्ति सब जानते है।कैलाश भी चला गया और लौटा तो अतिथियों तक लौटते लौटते धड़ाम से उनके सामने ही आ गिरा।यह अवसर जीवन में वैवाहिक वार्तालाप हेतु अंतिम ही रह गया होगा।
मृत्यु का भय व्यक्ति को क्या नहीं सिखाता किन्तु व्यसन के आगे व्यक्ति उसके आगे के परम ज्ञान को भी सीख जाता है। उसमें दुर्लभ गुणों और शरीर मे दुर्लभ शक्ति का विकास होने लगता है आप और मैं उस भाव को अपनी और से परिभाषित कर सकते हैं।जब कार्तिक माह तिरोहित होकर शीत का प्रभाव इतना बढ़ा देता है कि तन को उष्ण वस्त्र भी कम पड़ते है तब कैलाश मदिरा के दो पव्वे लेकर खुले में सब चिन्ताएं बेच कर सोता था।”अर्थ कितना चाहिय मारसाब पाँच दिन में पंद्रह सौ आ जाते है हम अमीरी से महीना निकाल लेते है”कैलाश की इस बात पर व्यग्य और क्रोध दोनो मेरे मस्तिष्क में थे परन्तु कोई क्या कर सकता था।
व्यक्ति भावनाओं का पुतला होता है और भाव स्थिर कहाँ हो सकते है भला ।जब एक दिवस पीछे पड़ोसी किसी को कटु वाणी से प्रताड़ित कर रहे थे और वहीं से कर्राती हुई ध्वनि”मावड़ी ए…….ओ मावड़ी ए………”ध्वनि अनवरत थी मैं चला गया देखा अर्ध मूर्च्छित अवस्था में वह पहियों के चिन्हों में पड़ा था।भावों ने जैसे आंधी का रूप ले लिया हृदय के विशाल धरातल पर वृक्ष उखड़ने लगे,पशु पक्षी जैसे मृत्यु का साक्षात्कार कर रहे थे।उसका विकृत रूप मल …….मूत्र त्याग हो चुका था नाक मुझे उसके मुख को देखने से पहले यह कह रहे थे कि जगत में इससे अधिक नहीं देखने योग्य कुछ नहीं। इस जुगुप्सा में वात्सल्य का स्वर मुझे रोके हुए था “”मावड़ी ए…..……….”।करुणा और ममत्व व्यक्ति को दीन बना देते है उस काया को हाथ लगाने की पराकाष्ठा न कर सका किन्तु वो मेरे निवेदन के पश्चात घर पहुँचाया गया।यह क्रम अब नित्य हो चला था गठीला बदन अब अस्थि पंजर होने लगा।
उस कुल के दो दीपक के रूप में वह छोटा होने का शौभाग्य रखता है और यह दुर्भाग्य भी रखता है कि देहाती संसार में वह निर्धन परिवार से कैसे अव्यवस्थित जीवन को परिपोषित करता हैं।निर्धनों और धनवानों के अंतर्द्वंद सरीखे नहीं होते क्योकि निर्धनों को तो अभाव में और क्या खोने का भय हो सकता है वे एक घास की छत वाले कमरे और सुबह शाम की रोटी के लिये इतने उलझ जाते है की जब तक स्वास के तार नहीं टूटते तब तक सुलझना सम्भव ही नहीं होता।जीवन के ये उलझाव जब माँ जैसी पवित्र प्रतिमूर्ति सुलझना चाहे तो वह अपने पुत्र से दुत्कार पा लेती है किंतु यह माँ तो दोनों से हाथ धो बैठी।
कोरोना की महामारी में वह मुझे दो माह न दिखा और जब केवल बातों के आसरे दिन बिताने वालों से सुना कि वो कहीं दूसरे गाँव में रह गया था और आ न सका।भला काम ही तो हुआ यह की वहाँ पैसे न थे न देने वाले मदिरा का मुँह न देख सका ।समय परिवर्तन को क्यों छोड़े और परिवर्तन सदैव अच्छाई और बुराई में से एक अवश्य साथ लाता है। पन्द्रह दिवस के कठिन परिश्रम का भुगतान गाँव लौटते ही हुआ और ढाई माह की पिपासा भी कहाँ अल्प हो सकती है।
काव्य सृजन करने वाले दिनकर के अरुण रूप का बखान सुखों के आगमन के रूप में करते है और कहते है कि अंधकार दुख और निराशा को सुख और आशा का प्रतीक सूर्योदय अरुणाभ से प्रतिफूलित करता हैं।हम उस अंधकार की कल्पना से भी डरते है गाँव मे बात चल रही थी कि दोनों पैर सीधे पसरे थे और वो गर्दन झुकायें बैठा था आभास ही नहीं हुआ होगा किन्तु जब प्रातः काल सड़क किनारे के खेत में पांच छह पव्वो के मध्य धावकों ने देखा तब वह हिल नहीं रहा था उसका चचेरा भाई उसकी अस्थियों को अपना पैर रखकर सीधा कर रहा था और कह रहा था”अरे कैलाश भाई मेरी गरीबी और दुःख तू अपने साथ ले जाना मेने तुझे दाढ़ दी है…………””
हरि ॐ
हनुमान प्रसाद जांगिड़
कहानी१, १८.६.२०२०